Thursday 30 July 2015

प्रेमचंद -प्रसंग

मार्क्सवादी आलोचना और आलोचकों के दौर में प्रेमचंद की कुछ खास कहानियों को ही हाई लाईट किया जाता था .तब हम विद्यार्थी थे और प्रेमचंद की सभ्यता विमर्श वाली कई कहानियों की और हमारा धयान ही नहीं गया .उदहारण के लिए ईश्वर और धर्म विषयक लगभग बीस से अधिक कहानियां उनके मानसरोवर के विभिन्न खण्डों में मिलती है .जैसे -खुदाई फौजदार ,चमत्कार ,बासी भात में खुदा का साझा , नरक का मार्ग ,स्वर्ग की देवी ,मनुष्य का परम धर्म ,मुक्ति मार्ग ,सद्गति ,मृतक भोज ,मंदिर ,राम लीला ,हिंसा परम धर्म ,ईश्वरीय न्याय ,शाप , पाप का अग्नि-कुण्ड,नाग पूजा ,दुर्गा का मंदिर ,ब्रह्म का स्वांग ,धर्म संकट आदि ,इसी तरह नैतिकता और चरित्र को लेकर सेवा मार्ग ,पशु से मनुष्य ,सच्चाई का उपहार ,सज्जनता का दंड , नामक का दरोगा ,न्याय , मर्यादा की वेदी ,चोरी ,लांछन ,प्रायश्चित ,इश्तीफा और माता का ह्रदय आदि ,उन्होंने मनोवेज्ञानिक पृष्ठभूमि पर आधारित धिक्कार , कायर ,अनुभव , मनोवृत्ति ,गिला ,लांछन ,उन्माद , कुत्सा ,नैराश्य ,क्षमा ,प्रेरणा अभिलाषा ,कामना तरु ,ममता ,पछतावा ,अधिकार चिंता ,दुराशा ,शांति ,बोधा ,अनिष्ट शंका जैसी महत्वपूर्ण कहानियां लिखी हैं .उनकी धर्म और ईश्वर विमर्श से सम्बंधित सर्वाधिक महत्वपूर्ण कहानी "बासी भात में खुदा का साझा"(मानसरोवर भाग २ ) की निम्नलिखित पंक्तियाँ देखें-"'उनसे बड़ा निर्दयी कोई संसार में न होगा . जो अपने रचे हुए खिलोनो को उनकी भूलों और बेवकूफियों की सजा अग्निकुंड में धकेल कर दे ,वह भगवान दयालु नहीं हो सकता .भगवान जितना दयालु है ,उससे असंख्य गुना निर्दयी है .और ऐसे भगवान की कल्पना से मुझे घृणा होती है .प्रेम सबसे बड़ी शक्ति कही गयी है ,विचारवानों ने प्रेम को ही जीवन की और संसार की सबसे बड़ी विभूति मानी है .व्यवहार में न सही ,आदर्श में प्रेम ही हमारे जीवन का सत्य है ,मगर तुम्हारा ईश्वर डंडा भय से सृष्टि का संचालन करत है .फिर उसमें और मनुष्य में क्या फर्क हुआ ? ऐसे ईश्वर की उपासना मैं नहीं करना चाहता ,नहीं कर सकता .जो मोटे हैं उनके लिए ईश्वर दयालु होगा क्योंकि वे दुनिया को लूटते हैं . हम जैसों को तो ईश्वर की दया कहीं नज़र नहीं आती हाँ भय पग - पग पर खड़ा घुर करत है . यह माता करो नहीं तो ईश्वर दंड देगा .वह मत करो नहीं तो ईश्वर डंडा देगा .पेम से शासन करना मानवता है ,आतंक से शासन करना बर्बरता है .आतंकवादी ईश्वर से तो ईश्वर का न रहना ही अच्छा है .उसे ह्रदय से निकल कर मैं उसकी दया और डंडा दोनों से मुक्त हो जाना चाहता हूँ .एक कठोर डंडा वर्षों के प्रेम को मिटटी में मिला देता है . मैं तुम्हारे ऊपर बराबर जान देता रहता हूँ ,लेकिन किसी दिन डंडा लेकर पीत चलूँ तो तुम मेरी सूरत न देखोगी . ऐसे आतंकमय ,दण्डमय जीवन के लिए मैं ईश्वर का एहसान नहीं लेना चाहता .बसी भात में खुदा के साझे की जरुरत नहीं .अगर तुमने ओज-भोज पर जोर दिया ,तो मैं जहर खा लूँगा ." अभिव्यक्ति का यह कबीर जैसा निर्णायक स्वर आज भी आश्चर्यचकित करत है .ऐसी निर्णायक अभिव्यक्ति तो सिर्फ भगत सिंह नें की है .
                                                                                                                       रामप्रकाश कुशवाहा 

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