Friday 28 June 2013

जाति-विमर्श का साहस

भारतीय मानवीय समय का एक छोर ब्राह्मणवाद के पास है तो दूसरा दलितवाद के पास .ब्राह्मणवाद के पास तरह-तरह के अंधविश्वासों को और जातीय संकीर्णताओं को सच कि तरह प्रसारित करने में महारत हासिल है तो दलितों के पास भी बिना किसी ईश्वर और मिथक के जीवन जीने का सदियों पुराना अनुभव है .नयी सभ्यता के निर्माण में दलित-जीवन और अनुभवों  की दार्शनिक संभावनाओं का हिंदी में अभी उच्च स्तरीय सृजनात्मक दोहन नहीं हुआ है .जो कुछ भी है वह संसमरणात्मक ही है ,उसमें भविष्योन्मुख प्रगतिशीलता का अभाव है .हिंदी मे ईमानदार जाति-विमर्श अब भी शुरू नहीं हुआ है .शुरू में दलित विमर्श को भी मार्क्सवादी सरोकारों से बाहर ही माना  गया था ,जाति-विमर्श को प्रगतिशीलता के दायरे में न लेने के कारण वह अभी प्रारंभिक दौर में ही है .इस संकोच से भारतीय समाज के आधुनिकीकरण और रूपांतरण में देर हो रही है . कवि दिनश कुशवाह की कई कविताओं में जातीय चरित्र और मानसिकता को साहित्यिक विमर्श के केंद्र में बेझिझक लाने की रचनात्मक कोशिश मिलती है | इससे अपने ही भारत के कई अनदेखे चहरे सामने आते हैं .उनकी कविताएँ सामाजिक विमर्श के लिए आईना दिखने वाली कविताएँ हैं .उसमें हम अपने समाज की कुरूपताओं को पढ़ सकते हैं |पढ़े जाने के लिए उनकी कविताएँ एक बौद्धिक साहस की  मांग और अपील करती हैं यहाँ प्रस्तुत है पाखी के नवीनतम अंक में प्रकाशित राजनीतिक यथार्थ का सामाजिक पाठ प्रस्तुत करने वाली दिनेश कुशवाह की ऐसी ही एक कविता-




उजाले में आजानुबाहु
                           
                    - दिनेश कुशवाह


बड़प्पन का ओछापन सँभालते बड़बोले
अपने मुँह से निकली हर बात के लिए
अपने आप को शाबाशी देते हैं
जैसे दुनिया की सारी महानताएँ
उनकी टाँग के नीचे से निकली हों
कुनबे के काया-कल्प में लगे बड़बोले
विश्व कल्याण से छोटी बात नहीं बोलते।

वे करते हैं
अपनी शर्तों पर
अपनी पसंद के नायक की घोषणा
अपनी विज्ञापित कसौटी के तिलिस्म से
रचते हैं अपनी स्मृतियाँ और
वर्तमान की निन्दा करते हुए पुराण।

लोग सुनते हैं उन्हें
अचरज और अचम्भे से मुँहबाए
हमेशा अपनी ही पीठ बार-बार ठोकने से
वे आजानुबाहु हो गये।

उन्होंने ही कहा था तुलसीदास से
ये क्या ऊल-जलूल लिखते रहते हो
रामायण जैसा कुछ लिखो
जिससे लोगों का भला हो।

गांव की पंचायत में
देश की पंचायत के किस्से सुनाते
देश काल से परे बड़बोले
बहुत दूर की कौड़ी ले आते हैं।

सरदार पटेल होते तो इस बात पर
हमसे ज़्ारूर राय लेते
जैसा कि वे हमेशा किया करते थे
अरे छोड़ो यार!
नेहरु को कुछ आता-जाता था
सिवा कोट में गुलाब खोंसने के
तुम तो थे न
जब इंदिरा गांधी ने हमें
पहचानने से इंकार कर दिया
हम बोले-हमारे सामने
तुम फ्राक पहनकर घूमती थीं इंदू!
लेकिन मानना पड़ेगा भार्इ
इसके बाद जब भी मिली इंदिरा
पाँव छूकर ही प्रणाम किया।
'मैं' उनकेे लिए नहीं बना
वे 'हम' हैं
हम होते तो इस बात के लिए
कुर्सी को लात मार देते
जैसे हमने ठाकुर प्रबल प्रताप सिंह को
दो लात लगाकर सिखाया था
रायफल चलाना।

झाँसी की रानी पहले बहुत डरपोक थीं
हमारी नानी की दादी ने सिखाया था
लक्ष्मीबार्इ को दोनों हाथों तलवार चलाना।

एकबार जब बंगाल में
भयानक सूखा पड़ा था
हमारे बाबा गये थे बादल खोदने
अपना सबसे बड़ा बाँस लेकर।

हर काल-जाति और पेशे में
होते थे बड़बोले पर
लोगों ने कभी नहीं सुना था
इस प्रकार बड़बोलों का कलरव।

वे कभी लोगों की लाशों पर
राजधर्म की बहस करते हैं-
'शुक्र मनाइए कि हम हैं
नहीं तो अबतक
देश के सारे हिन्दू हो गये होते
उग्रवादी
तो कुछ बड़बोले
नौजवानों को अल्लाह की राह में लगा रहे हैं

कुछ बड़बोलों के लिए
आदमी हरित शिकार है
कमाण्डो और सशस्त्र पुलिस बल से
घिरे बड़बोले कहते हैं
हम अपनी जान हथेली पर लेकर आये हैं।

कभी वे अभिनेत्री के
गाल की तरह सड़क बनाते हैं
कभी कहते हैं सड़क के गढढे में
इंजीनियर को गाड़ देंगे।

जहाँ देश के करोड़ों बच्चे
भूखे पेट सोते हैं
कहते हैं बड़बोले
कोर्इ भी खा सकता है फाइव-स्टार में
मात्र पाँच हजार की छोटी सी रक़म में।

अपनी सबसे ऊँची आवाज़ में
चिल्लाकर कहते हैं वे
स्वयं बहुत बड़ा भ्रष्ट आदमी है यह
श्री किशन भार्इ बाबूराव अन्ना हजारे
इरोम चानू शर्मिला से अनभिज्ञ
देश की सबसे बड़ी पंचायत में
कहते हैं बड़बोले
एक बुढढा आदमी कैसे रह सकता है
इतने दिन बिना कुछ खाये-पिये
और वे भले मानुष
ब्रह्राचर्य को अनशन की ताकत बताते हैं।

यहाँ किसिम-किसिम के बड़बोले हैं
कोर्इ कहता है
इनके एजेण्डे में कहाँ हैं आदिवासी
दलित-पिछड़े और गरीब लोग
ये बीसी-बीसी (भ्रष्टाचार-भ्रष्टाचार) करें
हम इस बहाने ओबीसी को ठिकाने लगा देंगे।

कोर्इ कहता है
किसी को चिन्ता है टेण्ट में पड़े रामलला की
इस संवेदनशील मुददे पर
धूल नहीं डालने देंगे हम
अभी तो केवल झाँकी है
मथुरा काशी बाकी है।

देवता तो देवता हैं
देवियाँ भी कम नहीं हैं
कहती हैं बस! बहुत हो चुका!!
भ्रष्टाचार विरोधी सारे आंदोलन
देश की प्रगति में बाधा हैं
पीएम की खीझ जायज है
या तो पर्यावरण बचा लो
या निवेश करा लो
छबीली मुस्कान, दबी जबान में
कहती हैं वे
सचमुच बहुत भौंकते हैं
ये पर्यावरण के पिल्लै।

नहीं जानतीं वे कि उन जैसी हजारों
स्वप्न-सुन्दरियों की कंचन-काया
मिटटी हो जायेगी तब भी
बची रहेंगी मेधा पाटकर अरुणा राय और
अरुंधती, चिर युवा-चिरंतन सुंदर।


सचमुच एक ही जाति और जमात के लोग
अलग-अलग समूहों में इस तरह रेंकते
इससे पहले
कभी नहीं सुने गये।

बड़बोले कभी नहीं बोलते
भूख खतरनाक है
खतरनाक है लोगों में बढ़ रहा गुस्सा
गरीब आदमी तकलीफ़ में है
बड़बोले कभी नहीं बोलते।
वे कहते हैं
फिक्रनाट
बत्तीस रुपये रोज़ में
जिन्दगी का मजा ले सकते हो।

बड़बोले यह नहीं बोलते कि
विदर्भ के किसान कह रहे हैं
ले जाओ हमारे बेटे-बेटियों को
और इनका चाहें जैसा करो इस्तेमाल
हमारे पास न जीने के साधन हैं
न जीने की इच्छा।

बड़बोले देश बचाने में लगे हैं।

बड़बोले यह नहीं बोलते कि
अगर इस देश को बचाना है
तो उन बातों को भी बताना होगा
जिनपर कभी बात नहीं की गर्इ
जैसे मुठठी भर आक्रमणकारियों से
कैसे हारता रहा है ये
तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं का देश?
तब कहाँ थी गीता?
हर दुर्भाग्य को 'राम रचि राखा' किसने प्रचारित किया!
लोगों में क्यों डाली गयी भाग्य-भरोसे जीने की आदत?

पहले की तरह सीधे-सरल-भोले
नहीं रहे बड़बोले
अब वे आशीर्वादीलाल की मुद्रा में
एक ही साथ
वालमार्ट और अन्डरवल्र्ड की
आरती गाते हैं
तुम्हीं गजानन! तुम्ही षड़ानन!
हे चतुरानन! हे पंचानन!
अनन्तआनन! सहस्रबाहो!!

अब उनके सपने सुनकर
हत्यारों की रुह काँप जाती है
उनकी टेढ़ी नजर से
मिमिआने लगता है
बड़ा से बड़ा माफिया
थिंकटैंक बने सारे कलमघसीट
उनके रहमों-करम पर जिन्दा हैं।

पृथ्वी उनके लिए बहुत छोटा ग्रह है
आप सम्पूर्ण ब्रह्रााण्ड उनके मुँह में
देख सकते हैं
ऐसे लोगों को देखकर ही बना होगा
समुद्र पी जाने या सूर्य को
लील लनेे का मिथक।

बड़बोले पृथ्वी पर
मनुष्य की अन्यतम उपलबिधयों के
अन्त की घोषणा कर चुके हैं
और अन्त में बची है पृथ्वी
उनकी जठरागिन से जल-जंगल-जमीन
खतरे में हैं
खतरे में हैं पशु-पक्षी-पहाड़
नदियाँ-समुद्र-हवा खतरे में हैं
पृथ्वी को गाय की तरह दुहते-दुहते
अब वे धरती का एक-एक रो आं
नोचने पर तुले हैं
हमारे समय के कारपोरेटी कंस
कोर्इ संभावना छोड़ना नहीं चाहते
भविष्य की पीढि़यों के लिए
अतिश्योकित के कमाल भरे
बड़बोले इनके साथ हैं।

बड़बोलों ने रच दिया है
भयादोहन का भयावह संसार
और बैठा दिये हैं हर तरफ
अपने रक्तबीज क्षत्रप।

तमाम प्रजातियों के बड़बोले
एक होकर लोगों को डरा रहे हैं
इस्तेमाल की चीजों के नाम पर
वैज्ञानिकों की गवाही करा रहे हैं
ब्लेड, निरोध, सिरींज तो छोडि़ये
वे लोगों को नमक का
नाम लेकर डरा रहे हैं।

अब हँसने की चीज नहीं रहा
चमड़े का सिक्का
उन्होंने प्लाटिक को बना दिया
'मनी' और पारसमणि
छुवा भर दीजिए सोना हाजिर।

बड़बोले ग्लोबल धनकुबेरों का आहवान
देवाधिदेव की तरह कर रहे हैं
'कस्मै देवाय हविषा विधेम'
पधारने की कृपा करें देवता!
अतिथि देवो भव!!
मुख्य अतिथि महादेवो भव!!!

बड़बोले आचार्य बनकर बोल रहे हैं
जगती वणिक वृतित है
पैसा हाथ का मैल
हम संसार को हथेली पर रखे
आँवले की तरह देखते हैं
'वसुधैव कुटुम्बकम' तो
हमारे यहाँ पहले से ही था।

भूख गरीबी और भ्रष्टाचार के
भूमण्डलीकरण के पुरोहित
बने बड़बोले सोचते हैं
बर मरे या कन्या
हमें तो दक्षिणा से काम।

बड़बोले भगवा, कासक, जुब्बा
पहनकर बोल रहे हैं
पहनकर बोल रहे हैं
चोंगा-एप्रिन और काला कोट
बड़बोले खददर पहनकर
दहाड़ रहे हैं।

पर आश्चर्य!!
कश्मीर से लेकर कन्या कुमारी तक
कोर्इ असरदार चीख नहीं
सब चुप्प।
जिन्होंने कोशिश की उन्हें
वन, कन्दरा पहाड़ की गुफाओं में
खदेड़ दिया गया।

बड़बोले ग्रेट मोटीवेटर बनकर
संकारात्मक सोच का व्यापार कर रहे हैं
और कराहने तक को
बता रहे हैं नकारात्मक सोच का परिणाम।

बड़बोले प्रेम-दिवस का विरोध
और घृणा-दिवस का प्रचार कर रहे हैं
वे भार्इ बनकर बोल रहे हैं
वे बापू बनकर बोल रहे हैं
वे बाबा बनकर बोल रहे हैं।

बड़बोले अब पहले की तरह फेंकते नहीं
बाक़ायदा बोलने की तनख्वाह या
एनजीओ का अनुदान लेते हुए
अखबारों में बोलते हैं
बोलते हैं चैनलों पर
एंकरों की आवाज़ में बोलते हैं।

बाजार के दत्तक पुत्र बने बड़बोले
बड़े व्यवसायियों में लिखा रहे हैं अपना नाम
और येन-केन-प्रकारेण
बड़े व्यवसायियों को कर रहे हैं
अपनी बिरादरी में शामिल।

शताब्दी के महानायक बने बड़बोले
बिग लगाकर तेल बेच रहे हैं
बेच रहे हैं भारत की धरती का पानी
बड़बोले हवा बेचने की तैयारी में हैं।

कहाँ जायें? क्या करें?
जल सत्याग्रह! या नमक सत्याग्रह!
गांधीवाद या माओवाद!
एक बूँद गंगा जल पीकर
बोलो जनता की औलाद!!

बड़बोले अब मदारी की भाषा नहीं
मजमेबाजों की दुराशा पर जिन्दा हैं
कि आज भी असर करता है
लोगों पर उनका जादू
बड़बोले ख़्ाुश हैं
हम ख़्ाुश हुआ कि तर्ज पर
कि उन्होंने लोगों को
ताली बजाने वालों की
टोली में बदल दिया।

बड़बोले अर्थशास्त्र इतिहास
शिक्षा-संस्कृति और सभ्यता पर
बोल रहे हैं, बोल रहे हैं
साहित्य-कला और संगीत पर
सेठों और सरकारी अफसरों के रसोइये
बड़बोले कवियों की कामनाओं और
कामिनियों के कवित्व का
आखेट कर रहे हैं।

बड़बोले समझते हैं
जिसकी पोथी पर बोलेंगे
वही बड़ा हो जायेगा
सारे लखटकिया और लेढ़ू
पुरस्कारों के निर्णायक वही हैं।

परन्तु वे किसी के सगे नहीं हैं
वे जिस पौधे को लगाते हैं
कुछ दिनों बाद एकबार
उसे उखाड़कर देख लेते हैं
कहीं जड़ तो नहीं पकड़ रहा।

अगर आप उनके दोस्त बन गये
तो वे आपको जूता बना लेंगे
पहनकर जायेंगे हर जगह
मंदिर-मसिजद-शौचालय
और दुश्मन बन गये
तो आप
उनकी नीचता की कल्पना नहीं कर सकते।

वे चुप रहकर कुछ भी नहीं करते
सिवाय अपनी दुरभिसंधियों के
खाने-पचाने की कला में निपुण बड़बोले
अब अपने बेटे-दामाद-भार्इ-भतीजों को
बना रहे हैं भोग कुशल-बे-हया।

शीर्षक से उपरोक्त बने बड़बोलों को
अब किसी बात का मलाल नहीं होता
उन्हें इसकदर निडर और लज्जाहीन
अहलकारों ने बनाया या उस्तादों ने
उन्हें आदत ने मारा या अहंकार ने
कहा नहीं जा सकता
पर उन्होंने वाणी को भ्रष्ट कर दिया
भ्रष्ट कर दिया आचारण को
ग्रस लिया तंत्र को
डँस लिया देश को
सिर्फ बोलते और बोलते हुए
वाणी के बहादुरों ने
लोकतंत्र पर कब्जा कर लिया
और बाँट दिया उसे
जनबल और धनबल के बहादुरों में
और अब तीनों मिलकर
देश पर मरने वालो को
पदक बाँट रहे हैं।

Tuesday 11 June 2013

अलक्षित प्रतिरोध की पुनर्रचना

        
  समयांतर ,संपादक-पंकज बिष्ट ,जून-२०१३ के अंक में प्रकाशित 
     
              अलक्षित प्रतिरोध की पुनर्रचना
                                      राम्प्राकाश कुशवाहा

              किसान आन्दोलन की साहित्यिक जमीन :रामाज्ञा  शशिधर ;
                   अंतिका प्रकाशन ,पृo 207,  मूल्य : 225.00
                        ISBN 978-93-81923-27-6
युवा कवि एवं  आलोचक रामाज्ञा शशिधर की किताब 'किसान आन्दोलन की साहित्यिक जमीन ' साहित्यिक निबंधों की भाषा-संरचना और शिल्प में सृजित किसान आन्दोलनों और उनके लिए लिखे गए साहित्य पर केन्द्रित औपन्यसिक पठनीयता लिए एक साथ रोचक,मौलिक और महत्वपूर्ण शोधकार्य है .किसान-पक्ष एवं संवेदना की आत्मीय सृजनशीलता इसे हिन्दी के दूसरे शोध-प्रबंधों से अलग कराती है और इसे अपने ढंग की अकेली पठनीय किताब भी बनती है .यह इस किताब की विशिष्टताओं का साहित्यिक-सृजनात्मक पक्ष है ,जो इसके महत्वपूर्ण विषय किसान आन्दोलन और उससे जुडी  साहित्यिक सामग्री के शोध-महत्त्व के अतिरिक्त है .
            हमारे साहित्य,संस्कृति और सभ्यता के केन्द्र में किसान जीवन के मूल्य ही प्रतिष्ठित हैं .मुद्रा-विनिमय आधारित अर्थ-तंत्र और बाजार सभ्यता का विकास बहुत बाद में हुआ .इससे कृषि-उत्पादन के क्षेत्रों से दूर अलग हटाकर भी मानव-बस्तियां सम्भव हुईं.मंडियां,बाजार,कस्बे और नगर विकसित  हुए और आज हमारी सभ्यता महानगरों के विकास तक पहुँच गई है .लेकिन इस बाजार सभ्यता नें न सिर्फ आर्थिक व्यव्हार की अलग भाषा विकसित की है ,बल्कि मुद्रा आधारित मानव-व्यव्हार और रिश्तों का ऐसा यांत्रिक पर्यावरण भी दिया है ,जो एक संवेदन-शून्य असभ्य मनुष्य की रचना करता है .लेन-देन के बाहर  के हर रिश्ते को नकार देता है .शेक्सपियर के प्रसिद्ध  उपन्यास 'मर्चेण्ट आफ वेनिस 'का कंजूस पात्र शाईलाक  ऐसा ही अर्थ और बाजार के मूल्यों से  निर्मित अर्थ-पिशाच मनुष्य है .कार्ल मार्क्स इसी पूंजी-ग्रस्त मानस से मानव -सभ्यता को बाहर निकालने के लिए साम्यवाद की परिकल्पना कर रहे थे .
             दरआसल बाजार-व्यवस्था के अपने नियम हैं और नैतिक क्रूरताएँ हैं .यह एक प्रतीकात्मक और आभासी दुनिया की सृष्टि करती है .किसान जीवन जहाँ वस्तु-विनिमय और प्रत्यक्ष श्रम-सहयोग पर आधारित रहा है ,वहीँ बाजार-मूल्य पर आधारित नागरिक जीवन मुद्रा आधारित अप्रत्यक्ष और जटिल मानव-संबंधों पर .क्योकि हमारा सांस्कृतिक ढांचा अधिक पुराना है तथा वह किसान-मन और आत्मीयता का ही बौद्धिक विकास है ,इसलिए अब भी और कभी भी वह वह नागरिक जीवन की आलोचना का संवेदनात्मक पाठ और संविधान रचता है .युवा आलोचक रामाज्ञा शशिधर ने नें अपनी विरल शोध-कृति 'किसान आन्दोलन की साहित्यिक जमीन 'में ब्रिटिश औपनिवेशिक वर्चस्व और चेतना के प्रतिरोध की महत्वपूर्ण ऐतिहासिक सक्रियता के रूप में देखा है और साथ ही विनाश को विकास तथा बाजारीकरण आधारित पश्चिमीकरण को आधुनिकता मानने की प्रवृत्ति का निषेध और समाधान किसान-जीवन-मूल्यों और प्रतिरोध की स्मृति में ढूंढा है-उसे अत्यंत ही सार्थक और महत्वपूर्ण पहल के रूप में देखा जाना चाहिए .
                 भारत के ब्रिटिश औपनिवेशीकरण नें अपने आरभ और अंत में दो महाविनाशकारी हस्तक्षेप किए हैं .इस देश को मुक्त करते समय विभाजन के रूप में और अपनी सत्ता की स्थापना के आरंभिक काल  में हजारों वर्षों से श्रम द्वारा निर्मित कृषि-भूमि को वास्तविक किसान-पुरखों से छीनकर किसी को भी उसका स्वामित्व दे देना .इससे कृषि-भूमि का न सिर्फ अनैतिक विभाजन हुआ बल्कि भारत की वस्तु-विनिमय आधारित तथा संस्कृति आधारित अर्थ-तन्त्र वाली सभ्यता अवसाद में चली गई .ब्रिटिश भारत में बहुत -सी ऐसी जातियां थीं ,जिनका फसल में निश्चित हिस्सा लगता था और वे स्वयं कृषि-भूमि न रखते हुए भी अप्रत्यक्ष रूपमें कृषि-उपज के सांस्कृतिक हिस्सेदार थे-नयी व्यवस्था में भूमिहीन ही रह गए .इसमें संदेह नहीं कि संस्कृति आधारित अर्थ-तन्त्र के कारण ही भारत में जाति-आधारित सर्वहाराओं की सृष्टि हुई है .इस सच्चाई पर मार्क्सवादियों नें भी बहुत ध्यान नहीं दिया है .भारत में बहुत सी परंपरागत रूप में पेशेवर व्यापारी जातियां भी हैं .ये एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को आजीविका के लिए  सिर्फ व्यवसाय का प्रशिक्षण और उत्तराधिकार ही देती हैं .ऐसी जनसंख्या को भूमि-विभाजन के प्रश्नों  से कुछ लेना ही नहीं है इस तरह भारत आर्थिक दृष्टि से भी बहुल श्रेणीबद्ध आर्थिक वर्ग-संरचनाओं वाला समाज है ..भूमि के कुछ जातियों में ही बंटने के कारण भारत की किसान समस्या बहुत ही जटिल हो गई है और उसमें मार्क्सवादियों का हस्तक्षेप जातीय युद्ध की ओर ही ले  गया है .जातीयता की दृष्टि से भूमि के असमान वितरण के कारण तथा कृषि-कार्य के प्रति जातीय-सांस्कृतिक रूचि के आभाव के कारण भी भारत की अधिकांश  भूमिहीन जातियों में जन्मी जनसँख्या किसान-समस्या के प्रति प्रायः उदासीन है .इन तथ्यों के बावजूद हमारा सांस्कृतिक अचेतन क्योंकि किसान जीवन-मूल्यों पर आधारित है और सिर्फ किसान सभ्यता ही उदार और नि:स्वार्थ  रागात्मक सम्बन्धों ,आत्मीयता और संवेदनशीलता का पर्यावरण बचा सकती है -हिन्दी-भारतीय यथार्थ के सन्दर्भ में रामाज्ञा शशिधर की यह किताब किसान-साहित्य और संवेदना के इतिहास और  स्मृति के संरक्षण की दिशा में एक महत्वपूर्ण और सराहनीय प्रयास है .जहाँ तक इस कृति के शैक्षणिक और साहित्यिक शोधा-महत्त्व का सवाल है ;यह एक सच्चाई है कि  हिन्दी में सिर्फ किसान आन्दोलन के बारे में ही नहीं ,बल्कि किसी भी प्रकार के इतिहास-लेखन या उसके पुनर्चिन्तन की गंभीर सृजनात्मक  चिंता समकालीन युवा-पीढ़ी में नहीं दिखती -यद्यपि उसे व्यस्ततम वर्तमानजीविता का नया  इतिहास रचते हुए अवश्य ही देखा जा सकता है ...पुराना सब कुछ उसके लिए इतना बेमतलब हो गया है कि उत्तर-आधुनिक बनने के बाद तथा इतिहास के अंत की घोषणा के साथ उसके लिए अतीतगामी होने का न तो कोई अवशेष प्रयोजन है और न कोई अवकाश .स्पष्ट है कि यह स्मृतिहीनता के लिए अभिशप्त पीढ़ी की स्मृति और तात्कालिक  विवेक है .वह अपने जटिल होते वर्त्तमान में पूरी तरह फैला ,फंसा और निःशेष होता हुआ है .उसके पास शोषण और दुर्घटनाओं की पूर्व -स्मृति और परंपरा का कोई लेखा-जोखा नहीं है .जबकि अनुभव और स्मृति के बिना कोई भी प्रतिरोध संभव नहीं है .
        रामाज्ञा शशिधर की 'किसान आन्दोलन की साहित्यिक जमीन 'पुस्तक इस अर्थ में भी प्रतिरोध की पुनार्रचना है .आन्दोलन की मानसिकता और तेवर को आवाहन के माध्यम से पुनर्जीवित करती हुई .आलोचनात्मक नजरिया और संवेदनात्मक प्रस्तुति रामाज्ञ शशिधर की इस पुस्तक को एक विरल साहित्यिक कृति बनती है .इसे किसान आन्दोलन पर लिखे गए शोध-लेखों का संकलन मानना उचित नहीं होगा ये शोधपूर्ण अथवा शोध-समृद्ध निबन्ध हैं .विचारपूर्ण तथ्य-प्रस्तुति के साथ-साथ एक संवेदनात्मक पक्ष की प्रतिबद्धता इस पुस्तक को मिशनरी बनाती है .यह पुस्तक किसान संघर्ष को एक असमाप्त प्रक्रिया के रूप में प्रस्तुत करती है .इसामें उद्धृत कविताएँ इतिहास में जिए गए शब्द हैं .इस तरह यह पुस्तक लोक-संवेदना का दस्तावेजीकरण भी है . इसमें विकास को विनाश के रूप में देखने और दिखने वाली आँख है जिसमें प्रश्नांकित करने वाला .ऐतिहासिक विवेक है .इसमें किसान-यथार्थ के ईस्ट इण्डिया कंपनी से मोर्सेटो-वालमार्ट तक की अनवरत औपनिवेशिक यात्रा की वैचारिक-सांस्कृतिक परिणति की सजग शिनाख्त भी है .
          इस पुस्तक के लेखन में हुआ दस वर्षों का लेखकीय निवेश साफ-साफ देखा जा सकता है .'खासकर १९१७ के अवध,बिजोलिया एवं चम्पारणसे १९४७ तक के लिए इतिहास की धुल से चुनकर अभूतपूर्व 'देशज साहित्यिक सामग्री 'एकत्रित की गई है .इस कार्य को धूल से चुने गए फूलों से निर्मित माला से उपमित किया जाय तो उसे अतिशयोक्ति  मानना उचित नहीं होगा .तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं और  अन्य दस्तावेजों से खोजकर किसान-यथार्थ से सम्बंधित कविताओं के लगभग तीन सौ उद्धरणों का सन्दर्भ देकर लिखी गई यह पुस्तक किसान आन्दोलन से सम्बंधित महत्वपूर्ण साहित्यिक सामग्री का प्रशासनीय दस्तावेजीकरण करती है .जब राष्ट्रीय आन्दोलन की आंधी चल रही थी -यह कार्य आंधी में हिलाते बड़े वृक्षों की सरासराहट के बीच दूबका हिलना खोजने की तरह है .रामाजज्ञा शशिधर नें अत्यन्त धैर्य के साथ यह सामग्री संकलित की है .यह पुस्तक किसान आन्दोलन से सम्बंधित साहित्यिक सामग्री के लिए लेखक के लम्बे एवं परिश्रमी शोध-पूर्ण भटकाव  से संभव हुई होगी -यह इसके पृष्ठों पर उपस्थित सामग्री देखा कर ही पता चल जाता है .प्राप्त संकलित सामग्री के लम्बे विचारशील साहचर्य से इस कृति में वे वैचारिक कौंधे और विश्लेषण-दृष्टि में सूक्ष्मता शामिल हो पाई है ,जो इस पुस्तक की अप्रत्याशित उपलब्धि है .यही कारण है की यह पुस्तक एक बहुआयामी और विरल पाठकीय अनुभव पाती है .किसान-आन्दोलन से सम्बंधित कविताओं का इतिहास-लेखन इसका एक पहलू है,जिसकी खोज और पड़ताल देश-कल में लोक और साहित्य दोनों की परस्पर आवा -जाही से की गई है .इससे यह किताब साहित्य का भी इतिहास बन पाई है और समाज का भी .आन्दोलनों से सम्बंधित तथ्य और लोक की सृजनशीलता के जीवित -स्पंदित टुकड़े परस्पर गुंथे हुए हैं .
           प्रत्येक अध्याय के अंत में दी गई विस्तृत सन्दर्भ -सूची;जिसकी संख्या दूसरे अध्याय में सर्वाधिक १७४ है,लेखकीय श्रम का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं . इसके अतिरिक्त  पुस्तक में किसान-आन्दोलन से सम्बंधित प्राप्त सूचना और साहित्य-सामग्री का विश्लेषण और वर्गीकरण -जो निश्चय ही समग्र्यों की खोज-यात्रा पूरी हो जाने के बाद ही किया गया होगा  भी. भूमिका के पश्चात् अध्याय होने की प्रतीति करने वाले शीर्षक मूलतः खंडों के शीर्षक ही हैं .इस दृष्टि से देखा जाए तो यह पुस्तक पांच खण्डों में विभाजित है -हिन्दी क्षेत्र में किसान आन्दोलन ,किसान-कविता का स्वरूप,मुक्ति का आर्थिक -राजनीतिक परिप्रेक्ष्य ,मुक्ति का सामाजिक-सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य और कला की राजनीति .
            पहला अध्याय अथवा खण्ड किसन आन्दोलन की राजनीतिक,आर्थिक और सामाजिक पृष्ठभूमि को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करता है .संरचना की दृष्टि से पहला  खण्डहिन्दी क्षेत्र में किसान आन्दोलन 'स्वयं ही  पांच लघु अध्यायों का समुच्चय है -दमन और प्रतिरोध की यात्रा,सामन्तवाद विरोधी  चेतना ,उपनिवेशवाद विरोधी चेतना ,कांग्रेस यानि कालोनाइज्ड सिण्ड्रोम और वर्ग-संघर्ष की चेतना .इस उपखण्ड को आन्दोलन और उनकी पृष्ठभूमि का राजनीतिक,सामाजिक और आर्थिक इतिहास-लेखन कहा जा सकता है .अपनी प्रगतिशील समाजशास्त्रीय दृष्टि,रिपोर्ताज शिल्प और किसान जीवन तथा यथार्थ के प्रति अतिरिक्त संवेदन्शीलता के कारण रामाज्ञा शशिधर नें  १९१७ से १९१९ के बीच चलने वाले चम्पारण,बिजोलिया और अवध के किसान-आन्दोलनों की इतनी त्रिआयामिक प्रस्तुति की है कि सम्पूर्ण परिदृश्य प्रत्यक्ष हो उठता है .यह एक तरह से किसान आन्दोलनों और उनके नेतृत्वकर्ताओं का परिचयात्मक खंड भी है .तत्कालीन किसानों की आर्थिक असमर्थता और अशिक्षा का लाभ उठाकर इस देश का प्रभु-वर्ग औपनिवेशिक सत्ता के सहयोगी के रूप में कैसा निन्दनीय व्यव्हार करता रहा है ,इसका विस्तृत और प्रभावी विवरण यह पुस्तक देती है .विचारपरक होने के बावजूद पुस्तक का पहला खण्ड अनेक मार्मिक और त्रासद सूचनाओं से भरा है .किसानों से लिए जाने वाले सिर्फ बेगार करों की विस्तृत सूची को  ही देखें तो घुडअहीं ,मोटरर्हीं,हथियहीं,बंगलही ,फगुअहीं ,मुँहदेखाई ,चूल्हिआवन ,धवअहीं,नवअहींबपअही,पुतअहीं ,तावान,शराहबेशी ,हुंडा बंदोबस्तमडवच ,सगौडा,सिंगरहाट,बाट,छप्पा , कोल्हुआवनचंचरीभाता , दंड,बराड,डोलचिये ,गठाई ,नकाई जैसे अनेक वसूलियों का पता चलता है .
            किसानों के प्रतिरोध के संगठनकर्ता नेतृत्व का परिचय देते हैं .इनमें चंपारण में अफ्रीका से लौटे महात्मा गाँधी की भूमिका ,बिजोलिया में  शचीन्द्र सान्याल और रासा बिहारी बोस के क्रन्तिकारी मित्र विजय सिंह पथिक की भूमिका तथा अवध में मराठी बाबा रामचंद्र दासकी भूमिका  तथा उनके द्वारा चलाए गए आन्दोलन कार्यक्रम पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है .उन प्रभावी नारों एवं गीतों पर भी जिनकी ऐसे आन्दोलनों में ऐतिहासिक भूमिका रही है .जैसे-राज समाज विराजत रूरे /रामचंद्र सहदेव झींगुरे (रूरे किसान सभा का नारा ).यहाँ झींगुरीसिंह एवं सहदेव सिंह बाबा रामचंद्र दास के सहयोगी थे .यद्यपि बिजोलिया किसान सत्याग्रह १९१६ से ही आरम्भ हो चुका था ,लेकिन अधिक प्रभावी चम्पारण सत्याग्रह १९१७ में महात्मा गाँधी के नेतृत्त्व  में आरम्भ हुआ था .अवध में बाबा रामचंद्र दास की रूरे सभा और शहरी वकीलों की यूपी किसान सभा द्वारा सामंती ढांचे के खिलाफ १९२० से २२ के बीच तेज संघर्ष हुआ .रामाज्ञा नें शोध में प्राप्त उन अमानवीय प्रसंगों का भी विस्तृत विवरण दिया है ,जो आज भी नई पीढ़ी को आवेशित एवं आक्रोशित कर सकते हैं .इनमें लगन के लिए ५ एवं १२ वर्ष की बेटी बेचने वाले निरीह किसानों से लेकर जमीदार के कारिंदों द्वारा पशु दुग्ध प्राप्त न होने की दश में किसानों से मानव -दुग्ध की मांग करना :किसानों के  घर आने वाली दुल्हन को पति के यहाँ पहुँचने से पहले जमींदार के यहाँ रात बिताना :ऐसे ही डोला प्रथा के विरुद्ध क्रन्तिकारी किसान नेता नक्षत्र मालाकर द्वारा अपने साथियों सहित पालकी में बैठ कर जमींदार और उसके लठैतों की जमकर पिटाई करना जैसे प्रसंग भी हैं .
           दूसरा अध्याय 'किसान कविता का स्वरूप 'वस्तुतः हिन्दी में लिखी गई किसान सम्बन्धी कविताओं का व्यापक सर्वेक्षण है .यह सर्वेक्षण लोक और साहित्य दोनों ही क्षेत्रों में किया गया है .इस अध्याय के उपशीर्षकों को देखें तो 'किसान-कविता की अवधारणा ',प्राकऔपनिवेशिक किसान कविता ','घाघ,डाक और भड्डरी ',किसान कविता में १८५७ ','पड़ा हिन्द में महाअकाल','प्रताप''अभ्युदय''नवशक्ति''जनता','हुँकार' ,'हल ',लोकप्रिय दस्तावेज ','जब्तशुदा साहित्य ','बिहार के किसान-गीत ','राजस्थान के किसान -गीत ',रामचरितमानस का क्रन्तिकारी प्रयोग ','युक्त-प्रान्त के किसान-गीत ','मुख्यधारा की कविता ','राष्ट्रीय काव्यधारा में किसान 'हैं.लेखक नें लोक और साहित्य दोनों क्षेत्रों के शोध - महत्त्व को आधुनिक समाजशास्त्रीय नजरिए से देखा है .इससे किसान मानविकी 'समस्या और प्रतिरोध को सम्पूर्णता में देखने में मदद मिली है .१८५७ से लेकर १९४७ के बीच हिन्दी में चले किसान आन्दोलन को हिन्दी की अलग-अलग पत्रिका और पत्रों में धैर्यपूर्वक तलाशने का कार्य   रामाज्ञा शशिधर नें किया है .
               तीसरा अध्याय 'मुक्ति का आर्थिक-राजनीतिक परिप्रेक्ष्य ' अपने काव्यात्मक शीर्षकों और संवेदनात्मक चित्रण के साथ इस शोध को एक साहित्यिक निबन्ध-संरचना में प्रस्तुत करता है .उसके शीर्षक 'छोडो बेदखली की तलवार चलाना ','तोर जमीदरिया में ','फिरंगिया के राज में ','हल पंडित ध्वज निशान है ','गाँधी जी की छाप लगाकर ',आदि तथा इस अध्याय में सन्दर्भ रूप में दिए गए कविताओं के ७३ उद्धरण किसान आन्दोलन को उसके मूल सम्वेगधर्मिता और संवेदना  के साथ प्रस्तुत करते हैं .१९१८ में लिखी गई ऐसी पंक्तियाँ  जो अवध के किसानों की बेदखली से सम्बंधित हैं -आल्हा शैली में लिखी होने के कारण वीर रस शैली में निरीहता की व्यग्यात्मक प्रस्तुति करती हैं-'हंत!इजाफा अरु बेदाखलिन /की सहि जात न मार कुमार /कष्ट असह्य कहाँ लौं भोगाहिं/मिळत न विपति-सिन्धु को पार'(अभ्युदय साप्ताहिक ,२३ मार्च १९१८ ).ऐसे उद्धरण इस पुस्तक को अतिरिक्त महत्ता प्रदान करते हैं .लेखक के अनुसार हिन्दी की किसान कविता वर्ग संघर्ष की क्रन्तिकारी भूमिका तैयार करने में सक्षम थी,जन संस्कृति सांस्कृतिक क्रांति की आकांक्षा रखती थी और इसके लिए उसका रचनात्मक संघर्ष तीव्र था लेकिन किसान आन्दोलन को वर्ग संघर्ष के मूलगामी रूपन्तरण में ऐतिहासिक कारणों से चूक हुई .निस्संदेह यह चूक वही है ,जिसकी ओर मैंने  लेख के आरम्भ में ही संकेत किया है .   इसके बावजूद 'सामन्ती संरचना का विरोध किसान कविता का केंद्रीय कथ्य है .किसान-कविता में खेतिहर आबादी की बेदखली ,नाजायज लगान,लग-बैग ,नजराना,कर्ज जैसी जोंकों से निर्मित त्रासदी की अनगिनत छवियाँ हैं.(पृष्ठ १४५ )     
                     चौथे अध्याय 'मुक्ति का सामाजिक-सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य 'भी काव्य-उद्धरणों और संवेदनाधर्मी  भाषा-संरचना में लिखा जाने के कारण पठनीय और प्रभावी है .उसके भी उपशीर्षक लोक-गीतों की पंक्तियों से लिए गए हैं .'साँझ जमीदारण के सेज ',पकड़ि-पकड़ि बेगार करावत',,'गाजी मियाँमुर्गा मांगे ','गावें-गावें संगठनमाजैसे शीर्षक इस अध्याय में प्रस्तुत शोध-सामग्री को भी भाव-संवेद्य बनाते हैं .बिजोलिया किसान आन्दोलन के नायक विजय सिंह पथिक के बारे में यह कृतज्ञ भावोद्गार उस समय की लोक कविताओं की सच्ची छवि प्रस्तुत करता है -'म्हाने विजेसिंह आय जगायें माय /थारा गुण म्हें नहीं भूलां/म्हाने जूत्याँ सू पिटता बचाया ए माय /थारा गुण म्हें नहीं भूलां'.
                    पांचवां अध्याय 'कला की राजनीति ' इस शोध अनुभव को 'कला और लोकप्रियता का द्वंद्व ','रूप की धरती ',भाषा का यथार्थ ','अन्य का रूपक ','मिथक की विचारधारा 'आदि उपशीर्षकों के माध्यम से साहित्य-चिन्तन सम्बन्धी महत्वपूर्ण सूत्र विकसित करने का प्रयास करती है .रामाज्ञा के अनुसार 'किसान कविता कला की जन राजनीति से सीधी जुडी होने के कारण कलात्मकता और लोकप्रियता के संतुलन की कविता है .'किसान कविता की लोकप्रियता और कलात्मकता की एकता के निर्माण की प्रक्रिया को सामझाने के लिए किसान कविता की प्रसारशीलता ,विचारधारा,वर्गीय दृष्टिकोण ,पाठकों और श्रोताओं से उसके सम्बन्ध ,उद्देश्य और परिणाम ,प्रचार-प्रसार के माध्यम आदि मुद्दों को गहराई और व्यापकता के साथ समझाना होगा .(पृष्ठ १७५ )'किसान कविता की कलात्मकता वर्ग -संघर्ष की नईअंतर्वस्तु,नए रूप और नई भाषिक संरचना से प्राप्त हुई .उसकी लोकप्रियता के निर्माण में लोकभाषा ,लोक छंद ,लोक धुन ,लोक ले ,लोक मुहावरे आदि का योगदान है .उसकी कलात्मकता और लोकप्रियताकी रचनात्मक एकता के विकास में उद्बोधन ,संबोधन और संवाद की शैली का भी योगदान है .'(पृष्ठ १८० )रूप के स्तर पर किसान कविताएँ लिखित और मौखिक दोनों तरह की हैं .तुलना में 'किसान कविता का मौखिक लोक और जनगीत वाला हिस्सा ज्यादा रचनात्मक और लोकप्रिय है .'(वही,१८३ )भाषा भी लिखित और मौखिक दोनों रूपों में दिखाई देती है  .इसी अध्याय में 'अन्य का रूपकशीर्षक के अन्तर्गत किसान-कविता में आए बिम्बों और प्रतीकों का विश्लेषण किया गया है लेखक नें किसान कविता के जन धर्मी बिम्बों को आन्दोलनधर्मी और मुक्तिधर्मी डॉ रूपों में चिन्हित किया है .आंदोलनधर्मी कविता में शोषण मूलक त्रासद  अनुभव वाले बिम्बों की भरमार है ,क्योकि प्रतिरोधी बिम्बों का व्यापक पैमाने पर निर्माण -कार्य किसान-कविता के लिए जरुरी रचना-प्रक्रिया था .सामन्तवाद-साम्राज्यवाद विरोधी बिम्ब ,वर्ग-संघर्ष की चेतना के निर्माण,किसान-जागरण ,राष्ट्रवादी तथा स्त्री-मुक्ति सम्बन्धी बिम्ब आते हैं.  हिन्दी आलोचना की समृद्धि के लिए रामाज्ञा शशिधर की यह प्रस्तावना भी महत्वपूर्ण है किकिसान-कविता अंग्रेजी की 'औपनिवेशिक भाषाई मानसिकता 'के विरुद्ध हिन्दी कविता की 'खड़ी बोली,को जनपदीय बोलियों की कविता से समृद्ध करती है तथा लिखित और वाचिक के तनाव से कलात्मकता एवं लोकप्रियता के बुनियादी कला-नियम का हल प्रस्तुत करती है .'