Friday 10 July 2015

साहित्य में आरक्षण बनाम आरक्षण का विरोध/सुभाष चन्द्र कुशवाहा

अजीब विडंबना है कि समाज के सृजनात्मक क्षेत्रों में घटकवाद, क्षेत्रवाद, संप्रदायवाद और जातिवाद ने न केवल गहरी पैठ बनाई है अपितु तथाकथित मार्क्सवादियों को भी इस कदर अपनी गिरफ्त में ले लिया है कि उन्होंने जीवन के उत्तरार्द्ध में आते-आते अपने छद्म और सृजनात्मकता को किनारे रख, सीधे-सीधे जातिवादी एजेंडे को उजागर करना शुरू कर दिया है, गोया अब चूके तो पीढि़यां शायद गद्दार कह दें । डा0 रामविलास शर्मा भी अंततः इसी एजेंडे को छुपा न पाये थे और आज नामवर जी सामाजिक आरक्षण के बहाने बोल कर भी अबोले रहना चाहते हैं या राजनैतिक लोगों की तरह कह कर कहना चाहते हैं कि- मेरे कहने का गलत अर्थ लगाया गया है । मेरा कहने का मतलब यह था कि मैं साहित्य में आरक्षण का विरोधी हूं, दलितों और पिछड़ी जातियों को मिलने वाले आरक्षण का नहीं । नामवर जी महान हैं और उन जैसे महान लोग जैसे चाहें वैसे बातों को धार देने की कला रखते हैं । आरक्षण विरोधी होने के बावजूद बात पलटने का अधिकार उनके पास आरक्षित है । तब मन में विचार उठता है कि यूं ही कोई नामवर नहीं होता ? अब यह बात हजम नहीं होती कि अगर नामवर जी के कहने का आशय साहित्य के आरक्षण से था तो फिर बाभन-ठाकुर के लड़कों की भीख मांगने तक की नौबत आ गई है, कहने की सार्थकता या तात्पर्य क्या था ?
समाज का आर्थिक ढांचा जिस ढ़ंग से गैरबराबरी का होता जा रहा है उसमें किसी भी जाति या वर्ग के कमजोर तबके के लिये जीना मुश्किल होता जा रहा है, इसमें बाभन-ठाकुर जाति के लोग भी होंगे और बहुतायत में पिछड़े और दलित भी । पर नामवर जी की बात का यह तात्पर्य तो कतई नहीं था । नामवर जी हमेशा सचेतन रूप से शगूफा छोड़ते हैं । उन्होंने सोच-समझ कर ही प्रगतिशील लेखक संघ के 75वें अधिवेशन को चुना था । अगर नामवर जी के कहने का आशय साहित्य में आरक्षण से था तो इसके कारक कौन है ? अगर नामवर जी की जातिगत भाषा में सवाल करूं तो क्या वे दलित हैं ? फिर कौन ऐसे आरक्षण का नेतृत्व कर रहा है ? साहित्य के सत्ता केन्द्रों पर कितने गैर नामवरी लोग बैठे हैं ? अब तक किन की कहानियों को उछाला गया है और किनको पुरस्कृत किया गया है ? विश्वविद्यालयों की नियुक्तियों में महान साहित्यकारों ने चयन समितियों में अपना स्थान बनाकर किन्हे चुना है ? किन्हे, किसके द्वारा पी0एच0डी0 की उपाधि दिलाई गई है ? शायद नामवर जी यहां उनकी जाति न देखना चाहेंगे । क्योंकि तब वे माक्र्सवादी बन जायेंगे । तब वह वर्ग आधारित समाज की बात पर आ जायेंगे और जाति आधारित समाज की वकालत करने से परहेज करने की बात करेंगे । अगर उनकी जाति देख ली जाये तो तमाम महान लोगों को नंगे होने में ज्यादा समय न लगेगा ।
नामवर जी की वाक् पटुता, स्मृति क्षमता और बौद्धिकता की हम सभी इज्जत करते हैं और उन्हें सुनने जाते भी हैं । पर बदले में नामवर जी से क्या मिलता है ? अपनी कुलीनता का लबादा ओढ़े वह हर सम्मेलन के केंद्र में बने रहते हैं या रहना चाहते हैं । वह अपनी बात कह उठ जाते हैं । दूसरों की सुनते नहीं और उद्घाटन, समापन तक सीमित रहते हैं । प्रलेस में भी उन्होंने यही किया । अपनी बात कह उठ गये, लौटे समापन करने । बाकी साहित्यकारों की बातें उनके काम की न थीं । कुलीनता की यही प्रवृत्ति होती है ।
प्रगतिशील लेखक संघ के 75वें अधिवेशन में जाने का और बोलने का मौका मुझे भी मिला था । नामवर जी ने वीरेन्द्र यादव के जिस आलेख को असत्य, तोड़-मोड़ कर पेश करने वाला बताया है वह गले नहीं उतरता । नामवर जी ने दलित विमर्श और स्त्री विमर्श पर भी अपनी बात रखी थी । उन्होंने कहा था कि गैर दलित, दलित संवेदना को क्यों नही उद्घाटित कर सकता ? जाहिर है उनकी इस बात का विरोध नहीं किया जा सकता । मैंने अपने वक्तव्य में यह सवाल उठाया था कि नब्बे के बाद गैर दलितों ने दलित विमर्श से इसलिये किनारा कर लिया क्योंकि दलितों का भोगा हुआ यथार्थ, दूसरों की तुलना में ज्यादा प्रभावी और उद्वेलित करने वाला था । इससे छद्म मार्क्सवादियों की कुलीनता को झटका लगा था और प्रतिक्रिया स्वरूप उन्होंने दलित संवेदना को विषय बनाना छोड़ दिया । मुझे ही नहीं, तमाम लोगों को नामवर जी की आरक्षण के संबंध में की गई टिप्पणी हैरान करने वाली लगी थी । यह और बात है कि कुलीन तबके ने हमेशा की तरह चुप्पी साधना बेहतर समझा । नामवर जी अपने आरक्षण विरोधी बात को अब वर्ग आधारित समाज की बात बता रहे हैं । जब मैं ‘जातिदंश की कहानियां’ संपादित कर रहा था तब एक प्रसंग में नामवर जी ने मुझसे कहा था कि उन्होंने जाति और वर्ग पर लिखना छोड़ दिया है । हो सकता है कि उनका आशय यह हो कि अब वह जाति और वर्ग पर लिखना छोड़, बोलना शुरू कर दिया है । संभव है नामवर जी को यह याद न हो । क्योंकि महान लोगों को इतनी छोटी बातें याद नहीं रहती ।
नामवर जी दलित विमर्श और स्त्री विमर्श का मजाक उड़ाने के बाद कह रहे हैं कि उन्होंने रचनाओं की गुणात्मकता की बात कही थी । बेशक गुणात्मकता की बात हो तो किसी को क्या आपत्ति ? पर गुणात्मकता का पैमाना ऐसे आलोचकों पर तो नहीं ही होना चाहिये जो साल में छपी सभी कहानियों को पढ़ने के बजाय कुछ चुनिंदा कहानियों पर अपने शिष्यों की राय को राय बना दें ? एक बार कथाक्रम सम्मेलन में नामवर जी के वक्तव्य को याद किया जाये जिसमें उन्होंने कहा था कि सारी कहानियों को पढ़ना संभव नहीं था और उनके एक शिष्य ने कुल बीस कहानियां छांटी थीं और उनमें से उन्होंने कुछ कहानियों को पढ़ा है । मैत्रेयी जी ने उनकी बात पर आपत्ति उठाई थी और कहा था कि उनमें से कोई कहानी किसी लेखिका की क्यों नहीं थी ? दलित लेखक की बात ही छोडि़ये । यही है साहित्य में आरक्षण ।
दरअसल कोई बात संदर्भों से कब कटी बताई जायेगी और कब तोड़-मोड़ कर प्रस्तुत की हुई, कुलीनता और वर्चस्ववादी मानसिकता के अधिकार क्षेत्र में आती है । प्रगतिशील लेखक संघ के 75वें अधिवेशन में नामवर जी ने जो कुछ कहा, उसे हम सभी ने सुना और पढ़ा था । विरोध के स्वर तो तभी उठे थे । नामवर जी ने वीरेन्द्र यादव की बात के खंडन-मंडन में इतना विलंब क्यों कर दिया ? हमें स्वीकार करना होगा कि साहित्य में जातिवादी मानसिकता का एक नया दौर उभार पर है । कमजोर और हासिये के लोगों की बात स्वीकार करने के बजाय समर्थ तबका सीधे-सीधे बेहयाई पर उतर आया है । तभी तो वाराणसी के एक लेखक की बात का उत्तर वाराणसी का ही दूसरा लेखक यह कह कर देता है कि जब ठाकुर की बीवी को ठकुराइन कह सकते हैं तो चमार की बीवी को चमाइन क्यों न कहा जाये ? ऐसी मानसिकता पर शर्म करने के अलावा बचता क्या है ? क्या समाज में ठकुराइन का बोध चमाइन के बोध जैसा निर्मित है ? जो दंभ या कुलीनता का बोध ठकुराइन को प्राप्त है वही चमाइन को दिया गया होता तो यह सवाल उठता ही कहां ?

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