Sunday 21 June 2015

योग दिवस पर विपश्यना / प्रेम कुमार मणि

योग दिवस पर मुझे अपनी तरुणाई के नालंदा - प्रवास की याद आ रही है। भिक्षु द्वय जगदीश कश्यप और धर्मरत्न जी से विपस्सना को जाना समझा था। बुद्ध के अनुयायी इसे बहुत महत्व देते है। बुद्ध मानते थे की मन के उथल - पुथल का शरीर पर प्रभाव पड़ता है। वह मन को दुरुस्त करने की एक विधि बताते हैं। यही विपस्सना है। मन में ही विकार उठते है , जैसे क्रोध या अन्य बुरे भाव। क्रोध एक उग्र विकार है , अतएव इसे ही उदाहरण के रूप में लें। क्रोध उभरने से साँस अनियमित हो जाती है और इस अनियमन से शरीर की जीव रासायनिक क्रिया में अस्वाभाविक हलचल मच जाती है। मुहावरे में हम इसे खून खौलना कह सकते है। शरीर की यह अस्वाभाविक क्रिया हमारा चित्त और स्वास्थ दोनों ख़राब करती है। जीवन में यह लगातार होता रहे तो हम विनाश की ओर बढ़ते हैं।
बुद्ध सांसो पर पहरेदारी की बात करते हैं। इसे आना- पान सति कहा जाता है। जब हम सांसो की विसंगति को ठीक करते हैं , उसे लय में लाते हैं तब हमे शरीर के अन्य हिस्सों में आये विकारों को देखने में सुविधा होती है। यही विपस्सना है। पश्य अर्थात देखना , विपश्य अर्थात विशिष्ट रूप से देखना। अपने विकारो को देख लेने भर से उसका अवलम्ब - यानि आधार ध्वस्त हो जाता है। इसके साथ विकार भी समाप्त होने लगते है , क्रोध शमित होने लगता है।
आना- पान सति और विपस्सना पहला और दूसरा पायदान है। यह एक विज्ञान है। इसके अभ्यास से व्यक्ति विकार मुक्त होकर सद्चित युक्त होता है। ऐसे लोगो से बना समाज सच्चे अर्थों में धार्मिक बनता है - तन मन से विकार मुक्त स्वस्थ समाज।
योग विपस्सना का उलट है , विपरीत है। यह स्वस्थ शरीर से स्वस्थ मन की ओर बढ़ता है। बुद्ध स्वस्थ मन से स्वस्थ शरीर की ओर बढ़ते हैं। वैज्ञानिक विधि कौन है यह आप तय करेंगे। बाबा रामदेव अगर योग की जगह विपस्सना करते तो व्यापार की माया में नहीं बंधते। प्रधानमंत्री श्री मोदी यदि आना- पान सति से विपस्सना की ओर बढ़ते तब कई विवादों से दूर रहते।
इस विपस्सना के लिए किसी सांप्रदायिक मंत्र की भी जरुरत नहीं होती। यहाँ तो बस दीर्घ मौन की जरुरत है। इस योग दिवस पर लोग विपस्सना की चर्चा भी कर सकें , तो मै इसे एक अच्छी शुरुआत मानूंगा।

No comments:

Post a Comment